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सोमवार, 22 सितंबर 2008

ये पगली आँखें

पूर्ण परिपक्व मधुमास में,

मधुर मिलन सहवास में,

प्रिय- दर्शन के उल्लास में,

आनंदातिरेक से लबलबाए,

पलकों के गर्भ से निकल आए,

अश्रुजल में ख़ुद को,

धोती नहलाती आँखें।

आलसी साँसों को बुहारती,

उबासी भरी अंगड़ाई मरोड़ती,

बेसुध धड़कनों को धागे में पिरोती,

हर्षित ह्रदय में हार माला बनाती,

मंद-मंद मुस्काती आँखें।

श्रिंगार की भूखी- प्यासी,

प्रेम-महल की रखवाली दासी,

फूल- पत्तियों के रंग से,

संवरती अपने ही ढंग से,

सुंदर स्वप्नों को धर के,

काले मेघों से काजल भरके,

सजती-धजती आँखें।

प्रिय के अचक आगमन से,

भौंचक, घबराई अपूर्ण तैयारी से,

सकुचाई, सकपकाई, अकुलाई,

चौखट पर दुबकी दर्पण छुपाई,

सहज लज्जा से लजाती आँखें।

प्रिय के एकटक निहारने से,

व्याकुल व्योम के झरने से,

प्रेम-ज्वर से कंपकपाती,

स्पर्श-ताप से झुलसाती,

समर्पण करने को कसमसाती,

झुकती सर झुकाती आँखें।

प्रेम-आधार पर खड़ी हवेली में,

नजरों के आँख-मिचौली में,

नवजात चाँद-सी चितवन तले,

यौवन की नित पवन चले,

मधुशाला की बन मधुबाला,

मधु से भर- भर प्याला,

परोसती, पिलाती रसीली आँखें।

प्रेम-रस वर्षा में तर-ब-तर,

बाँहों में जकड़न का असर,

प्रेम प्याली में अधरों को रखती,

चोरी- चोरी कनखियाँ भरती,

मादक अधखुली आँखें।

रसिक रसपान में मदमस्त,

मल्लयुद्ध में होकर पस्त,

मतवाली मदहोश बेहोश,

होती जा रही खामोश,

बुदबुदाती, लडखडाती आँखें।

सरस-सलिल सरोवर में।

बालिकाएं मग्न हो जल-क्रीड़ा में,

संपिले कमल- डंठल तोड़ डराती,

खिलखिलाती हास्य- ध्वज फहराती,

वैसी ही चंचल शरारती आँखें।

झिझक कोहरे के हटते ही,

बादल लज्जा के छंटते ही,

प्रेमानंद से गदगद होकर,

फूल कलियों से लकदक होकर,

सजे सेज पर सवार होकर,

लरजती पसरती आँखें।

प्रेम-विनिमय व्यापार में,

तीव्र -प्रज्वलित अंगार में,

लुटती -लुटाती भष्म होती,

कामदेव-बाण वेधित होती,

युद्ध में धरासायी आँखें।

तृप्त क्षुधा संतुष्ट ह्रदय,

मीलों जैसे दुरी करके तय,

बेलौस, बेसुध पड़ी निढाल,

साध कर जैसे तीनो काल,

पड़ी निशब्द शिथिल आँखें।

सूर्यास्त बाद बंद होती पंखुडियाँ सी,

अँधेरा छाते बंद होती खिड़कियों सी,

धीरे -धीरे पलक भार से दबी,

तृप्त तृष्णा के भार से लदी,

सुस्ताती बोझिल आँखें।

थके- मांदे रात्रि का बीतता पहर,

भोर होते ही छोड़ना है शहर,

प्रिय के पहलु में लेटकर सोचती,

निंद्रा-नक्षत्र पर उतरती,

बलखाई अलसाई आँखें।

पलकों की चादर ओढ़कर,

सुखद-साधना में तल्लीन होकर,

बड़ी मुश्किल से अभी-अभी,

सोयी है ये पगली आँखें।

-बौबी बावरा।













1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

पलकों की चादर ओढ़कर,

सुखद-साधना में तल्लीन होकर,

बड़ी मुश्किल से अभी-अभी,

सोयी है ये पगली आँखें।

बहुत बढिया लिखा है।