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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।

आ अब लौट जाएँ कि चलने का वक्त हो चला है,
जिंदगी ने सबकुछ देकर भी आंसुओं से छला है।

माँ-बाप छोड़ चले जब उम्र थी केवल सात,
रिश्तों का परायापन देखा होश सँभालने के साथ।

जैसे-तैसे चलता रहा फ़िर तन्हाई के रोग ने छुवा,
साँझ का ढलता सूरज रोज दे जाता है मुझको दुवा।

खुले आसमान में चाँद-तारों के बीच कुछ तलाशता हूँ,
अपने आप से बातें करता रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।

बुलंदियों पे पैर रखने को देखे मैंने भी कई सपने थे,
मगर सीढियों में ताले मार गए वो जो मेरे अपने थे।

बुलाते हैं वो बस अब मातम के रोज अपने दर पे,
मैं कहाँ याद आता जब वो खुशी मनाते अपने घर पे।

-बौबी बावरा ।




मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

मुझको आँखें बंद कर लेने दो

अब और नहीं बस मुझको आँखें बंद कर लेने दो,
नब्ज ख़ुद रुक जायेगी बस साँसें बंद कर लेने दो।

पता नहीं कोई रहता है या न रहता है,
दिल के भूले बिसरे गली चौबारों में।
आलाव बुझा-बुझा सा लगता है,
पर तपिश बाकी है राख ओढे अंगारों में।

सजना संवारना है क्या अब भी तुम्हें,
सिंगारदान तो धूल और जंग खा रहा है।
पुराने बिंदी काजल से रिझाओ मत उन्हें,
सिंगार की दूकान वो ख़ुद भी चला रहा है।

बेचैनी कैसी थी कि सो भी न सके सारी रात,
आँखें बस अभी लगी ही थी कि मुर्गे ने दी बांग।
बेवफाई के रंग रंगे मेंहदी लगे वो हाथ,
दफ़न कर सारे किस्से भरने लगे फ़िर से मांग।

क़समें न खाओ ऐ आने वाले जमाने के लोग,
क़समें वादों की भूल-भुलैया बहुत बड़ी है ये।
बस में नहीं रहता अब ये बड़ा ग़लत है रोग,
शिकायत आइना से करते कि परछाई नहीं उनकी ये।

-बौबी बावरा

सोमवार, 22 सितंबर 2008

ये पगली आँखें

पूर्ण परिपक्व मधुमास में,

मधुर मिलन सहवास में,

प्रिय- दर्शन के उल्लास में,

आनंदातिरेक से लबलबाए,

पलकों के गर्भ से निकल आए,

अश्रुजल में ख़ुद को,

धोती नहलाती आँखें।

आलसी साँसों को बुहारती,

उबासी भरी अंगड़ाई मरोड़ती,

बेसुध धड़कनों को धागे में पिरोती,

हर्षित ह्रदय में हार माला बनाती,

मंद-मंद मुस्काती आँखें।

श्रिंगार की भूखी- प्यासी,

प्रेम-महल की रखवाली दासी,

फूल- पत्तियों के रंग से,

संवरती अपने ही ढंग से,

सुंदर स्वप्नों को धर के,

काले मेघों से काजल भरके,

सजती-धजती आँखें।

प्रिय के अचक आगमन से,

भौंचक, घबराई अपूर्ण तैयारी से,

सकुचाई, सकपकाई, अकुलाई,

चौखट पर दुबकी दर्पण छुपाई,

सहज लज्जा से लजाती आँखें।

प्रिय के एकटक निहारने से,

व्याकुल व्योम के झरने से,

प्रेम-ज्वर से कंपकपाती,

स्पर्श-ताप से झुलसाती,

समर्पण करने को कसमसाती,

झुकती सर झुकाती आँखें।

प्रेम-आधार पर खड़ी हवेली में,

नजरों के आँख-मिचौली में,

नवजात चाँद-सी चितवन तले,

यौवन की नित पवन चले,

मधुशाला की बन मधुबाला,

मधु से भर- भर प्याला,

परोसती, पिलाती रसीली आँखें।

प्रेम-रस वर्षा में तर-ब-तर,

बाँहों में जकड़न का असर,

प्रेम प्याली में अधरों को रखती,

चोरी- चोरी कनखियाँ भरती,

मादक अधखुली आँखें।

रसिक रसपान में मदमस्त,

मल्लयुद्ध में होकर पस्त,

मतवाली मदहोश बेहोश,

होती जा रही खामोश,

बुदबुदाती, लडखडाती आँखें।

सरस-सलिल सरोवर में।

बालिकाएं मग्न हो जल-क्रीड़ा में,

संपिले कमल- डंठल तोड़ डराती,

खिलखिलाती हास्य- ध्वज फहराती,

वैसी ही चंचल शरारती आँखें।

झिझक कोहरे के हटते ही,

बादल लज्जा के छंटते ही,

प्रेमानंद से गदगद होकर,

फूल कलियों से लकदक होकर,

सजे सेज पर सवार होकर,

लरजती पसरती आँखें।

प्रेम-विनिमय व्यापार में,

तीव्र -प्रज्वलित अंगार में,

लुटती -लुटाती भष्म होती,

कामदेव-बाण वेधित होती,

युद्ध में धरासायी आँखें।

तृप्त क्षुधा संतुष्ट ह्रदय,

मीलों जैसे दुरी करके तय,

बेलौस, बेसुध पड़ी निढाल,

साध कर जैसे तीनो काल,

पड़ी निशब्द शिथिल आँखें।

सूर्यास्त बाद बंद होती पंखुडियाँ सी,

अँधेरा छाते बंद होती खिड़कियों सी,

धीरे -धीरे पलक भार से दबी,

तृप्त तृष्णा के भार से लदी,

सुस्ताती बोझिल आँखें।

थके- मांदे रात्रि का बीतता पहर,

भोर होते ही छोड़ना है शहर,

प्रिय के पहलु में लेटकर सोचती,

निंद्रा-नक्षत्र पर उतरती,

बलखाई अलसाई आँखें।

पलकों की चादर ओढ़कर,

सुखद-साधना में तल्लीन होकर,

बड़ी मुश्किल से अभी-अभी,

सोयी है ये पगली आँखें।

-बौबी बावरा।













रविवार, 14 सितंबर 2008

न जाने कैसा कोहरा था

सिर्फ़ दो कदम साथ -साथ चले,
लगाकर रखा मुझको पलभर गले,
फ़िर छोड़ गए सोता मुझे पेड़ों तले,
जब मन में थे मेरे कई सपने पले।

तुमसे मिलकर सफर जब हमने शुरू किया था,
अपना सबकुछ छोड़कर तुम्हारा साथ दिया था।

अपने तो छुट चुके हैं अब तुम भी छोड़ गए हो,
अनजाने शहर में अकेला छोड़ मुंह मोड़ गए हो।

अब घर लौटूं कैसे रास्ता आंसुओं से भरा है,
कहाँ जाऊं क्या करूँ मन डरा-डरा है।

लाखों में एक तेरा ही वो मासूम चेहरा था,
असलियत देख न सके न जाने कैसा कोहरा था।

जरा सा भी वक्त न दिया तुमने मुझको सोचने का,
खेल जीत चले गए देकर ईनाम मुझे हार जाने का।

-बौबी बावरा

जी रहा हूँ लटके-लटके


मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके,
जाना पड़े कभी जब प्यार के पनघट पे।


अक्सर लगते हैं प्यार में वहां ऐसे झटके,
कि टूट जाते भोले- भाले दिलों के ही मटके,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


मेरे दिल के टुकड़े हुए उसके खंजर से कटके,
उसी के लगाए फंदे में जी रहा हूँ लटके-लटके,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


बीते न थे दिन ज्यादा अभी उस कली को चटके,
काँटों में बदल गए कैसे पंखुडियां सारे फटके,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


पागलपन में चक्कर लगा आता हूँ आज भी उस तट के,
चलता हूँ मगर अब प्यार के मझधार से हट -हट के,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


-बोबी बावरा

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

गिद्दों का बसेरा है


मिलते थे हम दोनों जब,
पेड़ों के झुरमुट में,
शीतल छाँव में ऊँचे पेड़ों के।
नरम घास पर अधलेटे,
तुम्हारी गोद में सर रखकर,
पल भर को मैं आँखें बंद कर लेता।
मोटे पेड़ों के तने पर,
तुम पीठ टिकाये बैठती।
कोमल उंगलियाँ अपनी,
मेरे सर के बालों पर फेरती।
ठंडी बयार प्यार में घुली हुई,
हमदोनों के बदन को नहलाती।
और साँसों के सहारे दिलों में,
प्यार के दीये जलाती।
सहसा तेज हवा के झोंकों में,
जंगली फूलों की महक,
मन के तंतुओं को उत्तेजित करती।
अपनी सहेलियों के किस्से सुनाती तुम,
और मैं सिर्फ़ हामी भरता।
चारों ओर का कभी जायजा लेती तुम,
कि हमारी तन्हाई भरी दुनिया में,
किसी की नज़र तो नहीं है।
निश्चिंत होकर फ़िर तुम,
मेरे पीठ में चिकोटी काटती।
बिजली सी दौड़ जाती बदन में,
रीझ जाता तेरी इस अदा पर।
हवा के झोंकों संग,
आँख मिचौली खेलती,
तेरी जुल्फों की चंद लड़ियाँ,
तेरे गालों में गिरती ठहरती,
बायीं हाथ से तुम उन्हें हटाती,
और मैं एकटक तुम्हें निहारता,
सारे जहाँ की खूबसूरती जैसे,
तब तेरे चेहरे में सिमट आती।
सूखे भुने चने अपने हाथों से तुम,
एक-एक कर मेरे मुंह में डालती।
तब मैं शरारत से भरकर,
तेरी उँगलियाँ दांतों से पकड़ लेता।
हल्की चीख निकालकर तुम,
मेरे गालों पर चपत लगाती।
इस क्रिया में चने बिखर जाते,
और घास में बिखरे चने को,
उठाकर हथेलियों में जमा करती,
और बगल में डालकर बुलाती,
जो छोटी सी गिलहरी पास में फुदकती।
पेड़ों से टूटे पत्ते गिरते,
लहराकर जब मेरे बदन के पर,
उठाकर तुम उससे मेरे,
कानो को गुदगुदाती,
और मैं दोनों हाथ पीछे कर,
तुम्हें बांहों में जकड़ लेता।
चंद दोहे मैं तुम्हें सुनाता,
रात जो लिखे थे तुम्हें याद करके।
सिलसिला ये चला बरसों,
पर पता चला एक दिन,
कि तुम्हारी कुछ मजबूरियां थी।
हालात मेरे भी अच्छे न थे।
लाख चाहकर भी हम दोनों,
साकार न कर सके सपने।
घर वालों की जिद के आगे,
तुमने व्याह रचा घर बसा ली।
और मैं अपनी किस्मत से लड़ता,
आज भी तेरे प्यार को संजोये,
यादों की उस पगडण्डी में,
ढलती शाम में अक्सर टहल आता हूँ,
तुम्हें बतलाना चाहता हूँ,
कि अब वो जगह बदल चुका है।
सूखे सड़े पत्तों का वहां ढेर है,
कंटीली झाडियाँ उग आई हैं।
गिलहरियाँ नहीं दिखती वहां।
दीमक के टीले भरे हैं।
घास धूप से जल चुके हैं।
वो ऊँचा पेड़ भी सुख चुका है।
और ऊँची सुखी डालियों पर,
अब गिद्दों का बसेरा है।
-बौबी बावरा

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

तुम्हारी लगाई आग में

फूल तो खिल जायेंगे फ़िर से बहार आने पर बाग़ में,
पर मेरा तो सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।

गुजर बसर कर रहा था मैं भले तन्हाई में,
तुमने ही मुझको छेड़ा था आकर मेरी तरूणाई में।
खेला मेरे सपनों को बदल कर बुलबलों के झाग में,
और मेरा सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।
दिन मुझे याद है जब दिल तोड़ा था तुमने जुलाई में,
ढोते फिर रहे हैं जिंदगी तब से तेरी बेवफाई में।
फिर से क्यूँ करते इजाफा दामन पे लगे अपने दाग में,
कि बची हुई राख जला रहे फिर से क्यों आग में।
चिंगारी को आग बनाने वाले तुम क्या कभी नहीं जलोगे,
अंगारों के घूँसे और लपटों की चाबुक तुम भी तो सहोगे।
रोओगे तुम उस दिन जब होगा फ़ैसला मेरे भाग में,
भले आज मेरा सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।

-बौबी बावरा