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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।

आ अब लौट जाएँ कि चलने का वक्त हो चला है,
जिंदगी ने सबकुछ देकर भी आंसुओं से छला है।

माँ-बाप छोड़ चले जब उम्र थी केवल सात,
रिश्तों का परायापन देखा होश सँभालने के साथ।

जैसे-तैसे चलता रहा फ़िर तन्हाई के रोग ने छुवा,
साँझ का ढलता सूरज रोज दे जाता है मुझको दुवा।

खुले आसमान में चाँद-तारों के बीच कुछ तलाशता हूँ,
अपने आप से बातें करता रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।

बुलंदियों पे पैर रखने को देखे मैंने भी कई सपने थे,
मगर सीढियों में ताले मार गए वो जो मेरे अपने थे।

बुलाते हैं वो बस अब मातम के रोज अपने दर पे,
मैं कहाँ याद आता जब वो खुशी मनाते अपने घर पे।

-बौबी बावरा ।




मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

मुझको आँखें बंद कर लेने दो

अब और नहीं बस मुझको आँखें बंद कर लेने दो,
नब्ज ख़ुद रुक जायेगी बस साँसें बंद कर लेने दो।

पता नहीं कोई रहता है या न रहता है,
दिल के भूले बिसरे गली चौबारों में।
आलाव बुझा-बुझा सा लगता है,
पर तपिश बाकी है राख ओढे अंगारों में।

सजना संवारना है क्या अब भी तुम्हें,
सिंगारदान तो धूल और जंग खा रहा है।
पुराने बिंदी काजल से रिझाओ मत उन्हें,
सिंगार की दूकान वो ख़ुद भी चला रहा है।

बेचैनी कैसी थी कि सो भी न सके सारी रात,
आँखें बस अभी लगी ही थी कि मुर्गे ने दी बांग।
बेवफाई के रंग रंगे मेंहदी लगे वो हाथ,
दफ़न कर सारे किस्से भरने लगे फ़िर से मांग।

क़समें न खाओ ऐ आने वाले जमाने के लोग,
क़समें वादों की भूल-भुलैया बहुत बड़ी है ये।
बस में नहीं रहता अब ये बड़ा ग़लत है रोग,
शिकायत आइना से करते कि परछाई नहीं उनकी ये।

-बौबी बावरा

सोमवार, 22 सितंबर 2008

ये पगली आँखें

पूर्ण परिपक्व मधुमास में,

मधुर मिलन सहवास में,

प्रिय- दर्शन के उल्लास में,

आनंदातिरेक से लबलबाए,

पलकों के गर्भ से निकल आए,

अश्रुजल में ख़ुद को,

धोती नहलाती आँखें।

आलसी साँसों को बुहारती,

उबासी भरी अंगड़ाई मरोड़ती,

बेसुध धड़कनों को धागे में पिरोती,

हर्षित ह्रदय में हार माला बनाती,

मंद-मंद मुस्काती आँखें।

श्रिंगार की भूखी- प्यासी,

प्रेम-महल की रखवाली दासी,

फूल- पत्तियों के रंग से,

संवरती अपने ही ढंग से,

सुंदर स्वप्नों को धर के,

काले मेघों से काजल भरके,

सजती-धजती आँखें।

प्रिय के अचक आगमन से,

भौंचक, घबराई अपूर्ण तैयारी से,

सकुचाई, सकपकाई, अकुलाई,

चौखट पर दुबकी दर्पण छुपाई,

सहज लज्जा से लजाती आँखें।

प्रिय के एकटक निहारने से,

व्याकुल व्योम के झरने से,

प्रेम-ज्वर से कंपकपाती,

स्पर्श-ताप से झुलसाती,

समर्पण करने को कसमसाती,

झुकती सर झुकाती आँखें।

प्रेम-आधार पर खड़ी हवेली में,

नजरों के आँख-मिचौली में,

नवजात चाँद-सी चितवन तले,

यौवन की नित पवन चले,

मधुशाला की बन मधुबाला,

मधु से भर- भर प्याला,

परोसती, पिलाती रसीली आँखें।

प्रेम-रस वर्षा में तर-ब-तर,

बाँहों में जकड़न का असर,

प्रेम प्याली में अधरों को रखती,

चोरी- चोरी कनखियाँ भरती,

मादक अधखुली आँखें।

रसिक रसपान में मदमस्त,

मल्लयुद्ध में होकर पस्त,

मतवाली मदहोश बेहोश,

होती जा रही खामोश,

बुदबुदाती, लडखडाती आँखें।

सरस-सलिल सरोवर में।

बालिकाएं मग्न हो जल-क्रीड़ा में,

संपिले कमल- डंठल तोड़ डराती,

खिलखिलाती हास्य- ध्वज फहराती,

वैसी ही चंचल शरारती आँखें।

झिझक कोहरे के हटते ही,

बादल लज्जा के छंटते ही,

प्रेमानंद से गदगद होकर,

फूल कलियों से लकदक होकर,

सजे सेज पर सवार होकर,

लरजती पसरती आँखें।

प्रेम-विनिमय व्यापार में,

तीव्र -प्रज्वलित अंगार में,

लुटती -लुटाती भष्म होती,

कामदेव-बाण वेधित होती,

युद्ध में धरासायी आँखें।

तृप्त क्षुधा संतुष्ट ह्रदय,

मीलों जैसे दुरी करके तय,

बेलौस, बेसुध पड़ी निढाल,

साध कर जैसे तीनो काल,

पड़ी निशब्द शिथिल आँखें।

सूर्यास्त बाद बंद होती पंखुडियाँ सी,

अँधेरा छाते बंद होती खिड़कियों सी,

धीरे -धीरे पलक भार से दबी,

तृप्त तृष्णा के भार से लदी,

सुस्ताती बोझिल आँखें।

थके- मांदे रात्रि का बीतता पहर,

भोर होते ही छोड़ना है शहर,

प्रिय के पहलु में लेटकर सोचती,

निंद्रा-नक्षत्र पर उतरती,

बलखाई अलसाई आँखें।

पलकों की चादर ओढ़कर,

सुखद-साधना में तल्लीन होकर,

बड़ी मुश्किल से अभी-अभी,

सोयी है ये पगली आँखें।

-बौबी बावरा।













रविवार, 14 सितंबर 2008

न जाने कैसा कोहरा था

सिर्फ़ दो कदम साथ -साथ चले,
लगाकर रखा मुझको पलभर गले,
फ़िर छोड़ गए सोता मुझे पेड़ों तले,
जब मन में थे मेरे कई सपने पले।

तुमसे मिलकर सफर जब हमने शुरू किया था,
अपना सबकुछ छोड़कर तुम्हारा साथ दिया था।

अपने तो छुट चुके हैं अब तुम भी छोड़ गए हो,
अनजाने शहर में अकेला छोड़ मुंह मोड़ गए हो।

अब घर लौटूं कैसे रास्ता आंसुओं से भरा है,
कहाँ जाऊं क्या करूँ मन डरा-डरा है।

लाखों में एक तेरा ही वो मासूम चेहरा था,
असलियत देख न सके न जाने कैसा कोहरा था।

जरा सा भी वक्त न दिया तुमने मुझको सोचने का,
खेल जीत चले गए देकर ईनाम मुझे हार जाने का।

-बौबी बावरा

जी रहा हूँ लटके-लटके


मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके,
जाना पड़े कभी जब प्यार के पनघट पे।


अक्सर लगते हैं प्यार में वहां ऐसे झटके,
कि टूट जाते भोले- भाले दिलों के ही मटके,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


मेरे दिल के टुकड़े हुए उसके खंजर से कटके,
उसी के लगाए फंदे में जी रहा हूँ लटके-लटके,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


बीते न थे दिन ज्यादा अभी उस कली को चटके,
काँटों में बदल गए कैसे पंखुडियां सारे फटके,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


पागलपन में चक्कर लगा आता हूँ आज भी उस तट के,
चलता हूँ मगर अब प्यार के मझधार से हट -हट के,
मेरे दोस्त प्यारे रहना जरा तुम बचके।


-बोबी बावरा

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

गिद्दों का बसेरा है


मिलते थे हम दोनों जब,
पेड़ों के झुरमुट में,
शीतल छाँव में ऊँचे पेड़ों के।
नरम घास पर अधलेटे,
तुम्हारी गोद में सर रखकर,
पल भर को मैं आँखें बंद कर लेता।
मोटे पेड़ों के तने पर,
तुम पीठ टिकाये बैठती।
कोमल उंगलियाँ अपनी,
मेरे सर के बालों पर फेरती।
ठंडी बयार प्यार में घुली हुई,
हमदोनों के बदन को नहलाती।
और साँसों के सहारे दिलों में,
प्यार के दीये जलाती।
सहसा तेज हवा के झोंकों में,
जंगली फूलों की महक,
मन के तंतुओं को उत्तेजित करती।
अपनी सहेलियों के किस्से सुनाती तुम,
और मैं सिर्फ़ हामी भरता।
चारों ओर का कभी जायजा लेती तुम,
कि हमारी तन्हाई भरी दुनिया में,
किसी की नज़र तो नहीं है।
निश्चिंत होकर फ़िर तुम,
मेरे पीठ में चिकोटी काटती।
बिजली सी दौड़ जाती बदन में,
रीझ जाता तेरी इस अदा पर।
हवा के झोंकों संग,
आँख मिचौली खेलती,
तेरी जुल्फों की चंद लड़ियाँ,
तेरे गालों में गिरती ठहरती,
बायीं हाथ से तुम उन्हें हटाती,
और मैं एकटक तुम्हें निहारता,
सारे जहाँ की खूबसूरती जैसे,
तब तेरे चेहरे में सिमट आती।
सूखे भुने चने अपने हाथों से तुम,
एक-एक कर मेरे मुंह में डालती।
तब मैं शरारत से भरकर,
तेरी उँगलियाँ दांतों से पकड़ लेता।
हल्की चीख निकालकर तुम,
मेरे गालों पर चपत लगाती।
इस क्रिया में चने बिखर जाते,
और घास में बिखरे चने को,
उठाकर हथेलियों में जमा करती,
और बगल में डालकर बुलाती,
जो छोटी सी गिलहरी पास में फुदकती।
पेड़ों से टूटे पत्ते गिरते,
लहराकर जब मेरे बदन के पर,
उठाकर तुम उससे मेरे,
कानो को गुदगुदाती,
और मैं दोनों हाथ पीछे कर,
तुम्हें बांहों में जकड़ लेता।
चंद दोहे मैं तुम्हें सुनाता,
रात जो लिखे थे तुम्हें याद करके।
सिलसिला ये चला बरसों,
पर पता चला एक दिन,
कि तुम्हारी कुछ मजबूरियां थी।
हालात मेरे भी अच्छे न थे।
लाख चाहकर भी हम दोनों,
साकार न कर सके सपने।
घर वालों की जिद के आगे,
तुमने व्याह रचा घर बसा ली।
और मैं अपनी किस्मत से लड़ता,
आज भी तेरे प्यार को संजोये,
यादों की उस पगडण्डी में,
ढलती शाम में अक्सर टहल आता हूँ,
तुम्हें बतलाना चाहता हूँ,
कि अब वो जगह बदल चुका है।
सूखे सड़े पत्तों का वहां ढेर है,
कंटीली झाडियाँ उग आई हैं।
गिलहरियाँ नहीं दिखती वहां।
दीमक के टीले भरे हैं।
घास धूप से जल चुके हैं।
वो ऊँचा पेड़ भी सुख चुका है।
और ऊँची सुखी डालियों पर,
अब गिद्दों का बसेरा है।
-बौबी बावरा

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

तुम्हारी लगाई आग में

फूल तो खिल जायेंगे फ़िर से बहार आने पर बाग़ में,
पर मेरा तो सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।

गुजर बसर कर रहा था मैं भले तन्हाई में,
तुमने ही मुझको छेड़ा था आकर मेरी तरूणाई में।
खेला मेरे सपनों को बदल कर बुलबलों के झाग में,
और मेरा सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।
दिन मुझे याद है जब दिल तोड़ा था तुमने जुलाई में,
ढोते फिर रहे हैं जिंदगी तब से तेरी बेवफाई में।
फिर से क्यूँ करते इजाफा दामन पे लगे अपने दाग में,
कि बची हुई राख जला रहे फिर से क्यों आग में।
चिंगारी को आग बनाने वाले तुम क्या कभी नहीं जलोगे,
अंगारों के घूँसे और लपटों की चाबुक तुम भी तो सहोगे।
रोओगे तुम उस दिन जब होगा फ़ैसला मेरे भाग में,
भले आज मेरा सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।

-बौबी बावरा








शनिवार, 23 अगस्त 2008

कांस्य ही बहुत है विजेंदर

स्वर्ण पदक न सही कांस्य ही बहुत है विजेंदर,

ये काफी रहा कि तुम बने आकर्षण के केन्द्र।

स्वर्ण पदक जीत सकते थे तुम पर गम न करो,

बस लगे रहो होशियारी भरा हौसला कम न करो।

काबिलियत है तुममें और पदक लेने की,

दम ख़म है अच्छे अच्छों को शिकस्त देने की।

बिंद्रा और सुशील के बाद रह गई थी एक और कड़ी,

विजेंदर के रहते ही बन पाई पदकधारी तिकड़ी।

उम्मीद अब है सब सोचेंगे खेलों को सुधारने की,

खेल तंत्र भी कुछ करेगा छोड़ सिर्फ़ शेखी बघारने की।

विश्व-स्तरीय खेलों में देश बहुत पिछड़ा है,

खेल राजनीति से ग्रस्त है खेल तंत्र सड़ रहा है।

अफ़सोस है ऐसी गन्दगी में खेल तंत्र सो रहा है,

इतनी बड़ी आबादी में हर पग प्रतिभा खड़ा है।

किंतु खेल तंत्र में निष्ठा ईमानदारी निष्पक्षता नही है,

खेल तंत्र को अपना उल्लू सीधा करने से ही फुर्सत नही है।

सोचो कुछ करो देश में खेल क्रांति ला सकते हैं,

पदक दौड़ में अमेरिका और चीन को पछाड़ सकते हैं।

खेल तंत्र में कुंडली मारे इन राजनेताओं को हटाओ,

खेल का अनुभव जिसे हो अच्छा उसे ही वहां बैठाओ।

या खेल तंत्र का निजीकरण करके तो जरा देखो,

हर खेल में देश स्वर्ण पदक जीतेगा आजमा कर देखो।

अवसर दो प्रतिभाओं को ये खेल द्वार क्यों सील हैं,

खेलों विकास के रस्ते में क्यों इतने कांटे व् कील हैं,

पहचानो जनता में बिंद्रा, विजेंद्र और कई सुशील हैं।

-बौबी बावरा








शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

सुशील कुमार पहलवान


वाह ! भाई वाह! सुशील कुमार पहलवान,
अपने बलबूते तुमने जीत ही लिया मैदान।
सोचा न था किसी ने सब थे तुमसे अनजान,
झटके भर में तुमने बना ली अपनी पहचान।
देश का सीना और चौड़ा किया बढ़ाई तुमने शान,
पदक भूख से मसमसाते देश को करा दिया जलपान।
छप्पन साल की तोड़ी चुप्पी हम कैसे न हों हैरान,
जधाव ने तब छेडी थी अब तुमने छेड़ दी तान।
अभिनन्दन है तुम्हारा हम हुए तेरे कद्रदान,
लोगों ने भी है अब लोहा तुम्हारी मान।
दिल कर रहा करने को आज ये एलान,
देश के नाम पर सबका करें अब आह्वान।
कि सुनो हे ! देश के भटके हुए नौजवान,
बिंद्रा, सुशील और विजेंदर सा दिखाओ उफान।
ग़लत काम छोड़ न करो ख़ुद को बदनाम,
कुकर्म छोड़ सुकर्म करो ऊँचा करो खानदान।
अंधे विचारधारा छोड़ दंगे न करो न करो मानवता का अपमान,
बाजू फड़कती है अगर तो अखाड़े में लगाओं अपनी जान।
मोटरसाईकल सवार हो छीनाझपटी करते क्यों नादान,
माँ बहनों के श्रृंगार झपट उधेड़ते क्यों उनके कान।
सजाते हो क्यों इस कदर अपनी अपराध की दूकान,
खेल कूद दंगल की तरफ़ करो अब अपनी रुझान।
अपनी चंचलता चपलता से देश की संभालो कमान,
एकजुट संकल्प से विश्व पटल पर तभी होगा देश का उत्थान।

-बौबी बावरा

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

विश्व विजयी अभिनव बिंद्रा

विश्व विजयी बना,
भारतीय अभिनव बिंद्रा।
चटकी हो जैसे बरसों की,
सुसुप्त कुम्भ्करनी निंद्रा।
जनता देश की देती,
बिंद्रा तुम्हें हार्दिक बधाई।
अपने बलबूते ही तुमने,
देश की लाज बचाई।
बरसों से देश ले रहा,
कई ओलिम्पिक में हिस्सा।
मगर खाली हाथ लौटना ही,
रहा हमेशा किस्सा।
सोचा न था किसी ने,
कि अभिनव कर दिखायेगा।
छुपा रुस्तम बन,
देश को शीर्ष पर बैठायेगा।
कठिन असंभव काम कर,
इतिहास तुमने रच दिया।
भ्रष्ट देसी तंत्र के बावजूद,
तुमने सपना सच किया।
निशाना लगाना हमें भी बताओ,
बन्दूक अपनी दो जरा उधार।
एकजुट हो संघर्ष करेंगे,
करने को हम भी सुधार।
कि शर्म करो हे निर्लज,
स्वार्थी नौकरशाह-राजनेता।
तुम्हारे ही चलते देश,
अब भी पिछवाडे में है लेटा।
कि बड़ा देश बड़ी आबादी,
फ़िर भी पदकों का है टोटा।
जेब भर अपनी तुम कर रहे,
अपना लालची पेट मोटा।
अन्य देश पदकों की,
लगा देते हैं जीत कर ढेर।
और तुम खोखले करते देश को,
कहलवाते अपने को हो शेर।

-बौबी बावरा

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

दिल उसी को चाहने लगा है

कौन हो तुम?

भटकती रूह-सी,

मेरी परछाई बनकर जी रही।

तन्हाई के समंदर में,

डगमगाई कश्ती-सी,

चकराते भंवर में तैर रही।

जोशीले लहरों-सी बढ़ती,

बुढे चट्टानों से टकराती,

और धीरे-धीरे शांत हो जाती।

ये कैसी चाहत है?

ये कैसा खिंचाव है?

कि जिसे नहीं चाहना था,

दिल उसी को चाहने लगा है।

मन कहता है,

नहीं-

पर एक,

टीसती सी लहर,

दिल की दीवारों को चीर जाती है।

एहसास दिलाती है,

कि बिना उसके जिंदगी,

बेकार है,

चाहत की सुलगती-बुझती,

आग का विस्तार है।

मजबूर जिन्दगी उसमें,

आज भी जलने को लाचार है।

-बौबी बावरा



शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

तुम नज़र आते हो हर लौ में

सांझ जब होती है
अँधेरा बढने के साथ साथ
विरह वेदना की कसक उठती है
तुम्हें याद मैं करती हूँ
चेहरे पर खामोशी लिए
एक दीया जलाती हूँ
फ़िर जलती लौ को निहारती हूँ
तुम्हें याद करते करते
सब कुछ भूल सी जाती हूँ
तन्हाई जाती है और पसर
हटती जलते लौ से है जब नज़र
चारों तरफ़ असंख्य लौ जाते हैं ठहर
वेदना जलती बुझती है सौ के सौ में
प्रिय तुम नजर आते हो हर लौ में

-बौबी बावरा

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

खंडित खंडहर बन जाऊँगी

अपने बारे में बताओ
अपने को न छुपाओ
तुम्हें देख पाऊँगी कैसे
रिश्ता तुमसे जोड़ पाऊँगी कैसे
पहले जान लूँगी समझ लूँगी
परख लूँगी पहचान लूँगी
तभी झील सी अपनी आँखों में
दिल की गहराई और सांसों में
तुम्हें उतरने दूँगी
तुम्हें बसने दूँगी
धोखे बहुत अब होते हैं
खोकर बाद में सब रोते हैं
मेरे साथ भी ऐसा हो जाए तो
वफ़ा के बदले वफ़ा न मिल पाए तो
खंडित खंडहर सी मैं कहलाउंगी
भरोसे की नींव हो तभी अपनाउंगी
नहीं तो कैसे अपने को बचाऊँगी
टुटा दिल लेकर कैसे जी पाऊँगी

-बौबी बावरा






बुधवार, 6 अगस्त 2008

राहें अब भी सूनी हैं

अभी अभी देखकर आया
राहें अब भी सूनी हैं
बस पहले की तरह
हर मोड़ पर एक
धुंधली परछाई है
हवा ने रुख बदला है
पर वो बेगानी सी याद
अब भी दिल में आती है
विरह वेदना के कम्पन में
यादों के हर कण कण में
हाँ ! अब भी उसे पाता हूँ
रीझा करता था कि
हमारी भी तो कोई है
सुर को साज देने वाली
नयन मदिरा पिलाने वाली
मेरे सपनो की शहजादी
मगर ये तो है बस
एक अधूरा सपना सा
कि वो आयी
जुड़े में फूल खोंसकर
बाँहों में प्यार भरकर
खड़ी रही खामोश
चाहा बाँहों में बाँध लूँ
जाने न इस बार दूँ
मगर सपना सपना होता है
सबकुछ कहाँ अपना होता है
चली गई जैसे थी आयी
मगर कहाँ ? पता नहीं
अरसे बीत गए
खड़ा हूँ बस उन राहों में
कि देखूं आती कहाँ से है
वह या उसकी यादें
कि शायद फ़िर आ जाए
मगर राहें तो सूनी हैं
अभी अभी देखकर आया
पहले कि तरह
राहें अब भी सूनी हैं

-बौबी बावरा



रविवार, 3 अगस्त 2008

बाल मनोरंजन गीत

सिर पर चमेली का तेल मला
सहज सलीके से मैं हूँ ढला
दुलार प्यार से हूँ मैं पला
आती मुझको हर हुनर कला
खाकर मिठाई शुद्ध घी में तला
गणित के प्रश्नों को है हला
तब छोटू संग घर से निकला
चोर सिपाही खेलने चला
छोटू को ये खूब खला
कि पहले बना वो चोर क्यों भला
वो सोचा मैंने उसको है छला
मन ही मन वो खूब जला
मुझे बात जब पता चला
सिपाही बनाया उसको पहला
फ़िर बताया इर्ष्या है बुरी बला
और प्यार से हर समस्या है टला
समझकर छोटू ने लगा लिया गला
ये दोस्ती प्यार से खूब फुला फला

-बौबी बावरा



मंगलवार, 29 जुलाई 2008

उत्तरदायित्व

कभी रोते कभी हँसते
रुकते कभी चलते
उठते कभी गिरते
निभाया था
क्या मालूम था
कि इस तरह
जीवन डगर में एक और चीज है
हल्का कभी भारी सा
उठाना पड़ता है
सभी को
आलावा इसके नही कोई रास्ता
तभी तो जीने के लिए
कुछ पाने के लिए
गले लगना पड़ता है
कभी निराश करता
कभी सुफल बरसाता
एक चीज ये भी है
जिसने स्वीकारा
वो पार पाया
करना नही कभी इंकार
तुझको मेरी कसम है
बेशक
छूटता है पसीना
मगर यही है जीना
उठा लो सोच कर कि
एक ही तो लफ्ज है बस ये
उत्तरदायित्व।

-बौबी बावरा

बुधवार, 23 जुलाई 2008

सरकार की मंगलवार

लो बच गई है अब सरकार मेरे यार
विकासवादियों की हुई जीत धमाकेदार
हाँ या ना का ये दंगल था बड़ा मजेदार
खास बड़ा था सरकार के लिए दिन मंगलवार

मतान्धता के नशे में वे होकर चूर
कुर्सी पर नजर गड़ाये पजाते हुए खुर
नकली सींगों में मलकर अहंकारी सुरूर
टकराकर ऐसे लुढ़के के अब उठने से मजबूर

रिश्वत का इल्जाम लगाया धोती गीली होती देख
हर फार्मूला पैंतरा आजमाया पलट पलट पासा फेंक
अपना ही तमाशा बनाया अवसरवादिता की रोटी सेक
लटक गए मुंह सबके सामने अपनी हार होती देख

खिंसियानी बिल्ली जायेगी कहाँ खम्भा नोचने
वजह अपनी हार का सरकार पर थोपने
आते रहेंगे सोच सोच कर फ़िर से भौंकने
अमेरिका से एटमी डील को होने से रोकने

ये विरोधी हैं अपने ही लक्ष्य से भटके
बौराए अपने ही विचारधारा में अटके
ना ख़ुद बढ़ेंगे ना बढ़ने देंगे हवा में हैं लटके
बदलती अर्थव्यवस्था से कब तक रहेंगे कटके

जनता बुद्धिमान ना सही पर बुद्धू भी नहीं
एटमी डील का कखहरा भले जानते नहीं
पर इतना पता है की सरकार इतनी मुरख नहीं
गरीबी भुखमरी के आगे डील इतना बुरा नहीं

परमाणु शक्ति से उर्जा लेना सीखना होगा
मानसून आधारित कृषि को इससे सींचना होगा
कृषि क्रान्ति से गरीबी को जीतना होगा
विश्व पटल पर भारत का नाम लिखना ही होगा.

-बौबी बावरा

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

भारतीय संसद के पहलवान

घुमावदार संसद के ख्म्भेदार भवन में
जमा हो लिए अपने मुद्दों का लेकर गट्ठर
उजले पोशाक धरकर अपने तन बदन में
दुसरे का मट्टका फोड़ने करने दुसरे का पंचर

छोटी बड़ी समस्याओं की लिस्ट तैयार होती है
पर नहीं सुनने की जैसे खा रखी सबने क़समें
थकी बुझी प्रतिनिधित्व इस कोलाहल में सोती है
भारतीय लोकतंत्र की ये अतिगारिमापूर्ण हैं रश्में

उठा पटक बांह मरोड़ हाथापाई से होती कसरत है
फुल वोलुम विरोध रागालाप से साफ़ होती है गला
देशहित सम्बन्धी बातों से इन प्राणियों को नफरत है
भारतीय राजनीति करने की ये अनूठी है कला

मुद्दा पटल पर रखने का वक्त बड़ा कम है
देखते देखते भोजनावकाश लो थाम लो अपनी थाली
बहसबाजी का गेम है खाने में असली दम है
सोचो राजनीति होगी कैसे पेट जब हो खाली

भूखी मुरख जनता तो भूखे पेट सो लेती है
ये उनके नेता हैं हाजमा इनका है फाइव स्टार
गर्मी बरसात सर्दी में जनता सड़क पर होती है
और इनके नेता के पास आठ हैं एसीयुक्त कार

और कितना फूंकेंगे पैसा सदन का करके बहिष्कार
वेतन भत्ता बनाकर कराके अपना ही सत्कार
दुसरे को पटक पछाड़कर जैसे हो गैंगवार
षडयंत्र प्रपंचयुक्त पॉवर का उभरता ये कारोबार।

-बौबी बावरा

सोमवार, 21 जुलाई 2008

मंगरू का विचार संसार

मंगरू झाड़ी के अंदर शौच पर बैठा था
बगल में रखा पानी भरा लोटा था
दो बीड़ी फूंक चुका पर काम न बना
घरवाली को मना किया ऐसे पकवान न बना
खैर झाड़ी के अंदर था सुकून का समंदर
दुनिया से अलग एक अभेद्ध पुरंदर
बैठा हो जैसा किसी टाइम मशीन पर
विचारों ने शुरु की कुश्ती दिमागी जमीन पर
जीवंत मुद्दा पर विचारों के पंछी लगे पंख फरफराने
एटमी उर्जा से बिदके विरोधी हाथी लगे चिघाड़ने
एटमी करार या कोई है महा तकरार
तिनके तिनके को तरसे मनमोहन सरकार
अमेरिका नाम सुनते ही लेफ्टी भुत सरके
नही चाहिए उन्हें एटमी उर्जा नाचेंगे ढिबरी धरके
एक एक मत पाने को हो गया घमासान
कमाई का एक रास्ता मिल गया आसान
छुपके थोड़ा रूठे रहो रेट बढ़ जाएगा
पचीस करोड़ से आगे वेट बढ़ जाएगा
मज़बूरी सरकार बचाने की खर्च तो होगा ही
जनता की कटेगी जेब तब दर्द तो होगा ही
धनकुबेरों के पैसे मत खरीदने में लगेंगे
पदों के मोल मलाई के मेले भी लगेंगे
दागियों को मौका है अपना पाप ढकने का
सरकार के समर्थन में अपना मत रखने का
कैसे दिन देख रही सरकार ये बेचारी
कैदियों और आरोपियों से दोस्ती की लाचारी
लेफ्टी और विरोधियों से क्या मगजमारी
काली भैंस को बीन की धुन लगे कैसे प्यारी
कैसे कैसे बैल जोते तुमने देश के बैलगाडी में
सड़क पर एक बैल चले तो दुसरा खींचे झाड़ी में
झाड़ी में तो मंगरू भी बैठा है जानकर मंगरू ठिठका
विचारों का घोड़ा हिनहिनाकर अब यहाँ पर अटका
शौच शौच में सोच विचार मुफ्त में दुनिया दर्शन
जो चाहो जैसा चाहो खूब करो ख्याली मर्दन।

-बौबी बावरा




रविवार, 20 जुलाई 2008

भारत अमेरिकी परमाणु करार

भारत अमेरिकी परमाणु करार
अपने ही देश में सौ तकरार
UPA के कन्धों में देश का भार
UPA चाहे हो देश का उद्धार
गांवो में पहुंचे बिजली एक बार
बंजर खेतों में पड़े पानी की फुहार
कोयला तेल का है सीमित भंडार
भविष्य का सोचना है दरकार
तभी होगा समूचे देश का सुधार
वामपंथी विपक्षी कब होंगे समझदार
क्या वे चाहते अर्थव्यवस्था की हार
अपने जिद्द में गिराने को सरकार
करते फ़िर रहे हैं क्यों दुष्प्रचार
साकारात्मकता को करके आस्विकार
है क्या इनके पास चमत्कार
उर्जा की मांग का कोई उपचार
विकास के हैं क्या युक्तियाँ चार
जनता पर पड़ी जब महंगाई की मार
जब काट रही है तेल की धार
अब सीख लो करना भी एतबार
अलग राग छोड़ मिलाओ तार से तार
फ़िर से सोचकर देखो यार
विनाश नहीं है ये मानवता की दरबार
पुरानी सोच छोड़ अब करो विचार
देश को करो न और लाचार
आर्थिंक विकास का ये है आधार
क्या करोगे पाकर एटमी हथियार
इससे पिछड़ जाओगे होके बीमार
और मत करो देश का बंटाधार
करो न देशहित को दरकिनार
सोचो इसके हैं लाभ अपार
विकास के इसमे नुस्खे हजार
सरकार गिराकर क्या दोगे समाचार
कर पाओगे क्या शेर का शिकार
चलो रहने दो सुनो आत्मा की पुकार
विकास को लेने दो एक नया आकार
पीढियां देगी तुमको पुरस्कार।

-बौबी बावरा