पर मेरा तो सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।
-बौबी बावरा
ये काफी रहा कि तुम बने आकर्षण के केन्द्र।
स्वर्ण पदक जीत सकते थे तुम पर गम न करो,
बस लगे रहो होशियारी भरा हौसला कम न करो।
काबिलियत है तुममें और पदक लेने की,
दम ख़म है अच्छे अच्छों को शिकस्त देने की।
बिंद्रा और सुशील के बाद रह गई थी एक और कड़ी,
विजेंदर के रहते ही बन पाई पदकधारी तिकड़ी।
उम्मीद अब है सब सोचेंगे खेलों को सुधारने की,
खेल तंत्र भी कुछ करेगा छोड़ सिर्फ़ शेखी बघारने की।
विश्व-स्तरीय खेलों में देश बहुत पिछड़ा है,
खेल राजनीति से ग्रस्त है खेल तंत्र सड़ रहा है।
अफ़सोस है ऐसी गन्दगी में खेल तंत्र सो रहा है,
इतनी बड़ी आबादी में हर पग प्रतिभा खड़ा है।
किंतु खेल तंत्र में निष्ठा ईमानदारी निष्पक्षता नही है,
खेल तंत्र को अपना उल्लू सीधा करने से ही फुर्सत नही है।
सोचो कुछ करो देश में खेल क्रांति ला सकते हैं,
पदक दौड़ में अमेरिका और चीन को पछाड़ सकते हैं।
खेल तंत्र में कुंडली मारे इन राजनेताओं को हटाओ,
खेल का अनुभव जिसे हो अच्छा उसे ही वहां बैठाओ।
या खेल तंत्र का निजीकरण करके तो जरा देखो,
हर खेल में देश स्वर्ण पदक जीतेगा आजमा कर देखो।
अवसर दो प्रतिभाओं को ये खेल द्वार क्यों सील हैं,
खेलों विकास के रस्ते में क्यों इतने कांटे व् कील हैं,
पहचानो जनता में बिंद्रा, विजेंद्र और कई सुशील हैं।
-बौबी बावरा
कौन हो तुम?
भटकती रूह-सी,
मेरी परछाई बनकर जी रही।
तन्हाई के समंदर में,
डगमगाई कश्ती-सी,
चकराते भंवर में तैर रही।
जोशीले लहरों-सी बढ़ती,
बुढे चट्टानों से टकराती,
और धीरे-धीरे शांत हो जाती।
ये कैसी चाहत है?
ये कैसा खिंचाव है?
कि जिसे नहीं चाहना था,
दिल उसी को चाहने लगा है।
मन कहता है,
नहीं-
पर एक,
टीसती सी लहर,
दिल की दीवारों को चीर जाती है।
एहसास दिलाती है,
कि बिना उसके जिंदगी,
बेकार है,
चाहत की सुलगती-बुझती,
आग का विस्तार है।
मजबूर जिन्दगी उसमें,
आज भी जलने को लाचार है।
-बौबी बावरा
-बौबी बावरा