Pages

यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

तुम्हारी लगाई आग में

फूल तो खिल जायेंगे फ़िर से बहार आने पर बाग़ में,
पर मेरा तो सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।

गुजर बसर कर रहा था मैं भले तन्हाई में,
तुमने ही मुझको छेड़ा था आकर मेरी तरूणाई में।
खेला मेरे सपनों को बदल कर बुलबलों के झाग में,
और मेरा सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।
दिन मुझे याद है जब दिल तोड़ा था तुमने जुलाई में,
ढोते फिर रहे हैं जिंदगी तब से तेरी बेवफाई में।
फिर से क्यूँ करते इजाफा दामन पे लगे अपने दाग में,
कि बची हुई राख जला रहे फिर से क्यों आग में।
चिंगारी को आग बनाने वाले तुम क्या कभी नहीं जलोगे,
अंगारों के घूँसे और लपटों की चाबुक तुम भी तो सहोगे।
रोओगे तुम उस दिन जब होगा फ़ैसला मेरे भाग में,
भले आज मेरा सबकुछ राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में।

-बौबी बावरा








शनिवार, 23 अगस्त 2008

कांस्य ही बहुत है विजेंदर

स्वर्ण पदक न सही कांस्य ही बहुत है विजेंदर,

ये काफी रहा कि तुम बने आकर्षण के केन्द्र।

स्वर्ण पदक जीत सकते थे तुम पर गम न करो,

बस लगे रहो होशियारी भरा हौसला कम न करो।

काबिलियत है तुममें और पदक लेने की,

दम ख़म है अच्छे अच्छों को शिकस्त देने की।

बिंद्रा और सुशील के बाद रह गई थी एक और कड़ी,

विजेंदर के रहते ही बन पाई पदकधारी तिकड़ी।

उम्मीद अब है सब सोचेंगे खेलों को सुधारने की,

खेल तंत्र भी कुछ करेगा छोड़ सिर्फ़ शेखी बघारने की।

विश्व-स्तरीय खेलों में देश बहुत पिछड़ा है,

खेल राजनीति से ग्रस्त है खेल तंत्र सड़ रहा है।

अफ़सोस है ऐसी गन्दगी में खेल तंत्र सो रहा है,

इतनी बड़ी आबादी में हर पग प्रतिभा खड़ा है।

किंतु खेल तंत्र में निष्ठा ईमानदारी निष्पक्षता नही है,

खेल तंत्र को अपना उल्लू सीधा करने से ही फुर्सत नही है।

सोचो कुछ करो देश में खेल क्रांति ला सकते हैं,

पदक दौड़ में अमेरिका और चीन को पछाड़ सकते हैं।

खेल तंत्र में कुंडली मारे इन राजनेताओं को हटाओ,

खेल का अनुभव जिसे हो अच्छा उसे ही वहां बैठाओ।

या खेल तंत्र का निजीकरण करके तो जरा देखो,

हर खेल में देश स्वर्ण पदक जीतेगा आजमा कर देखो।

अवसर दो प्रतिभाओं को ये खेल द्वार क्यों सील हैं,

खेलों विकास के रस्ते में क्यों इतने कांटे व् कील हैं,

पहचानो जनता में बिंद्रा, विजेंद्र और कई सुशील हैं।

-बौबी बावरा








शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

सुशील कुमार पहलवान


वाह ! भाई वाह! सुशील कुमार पहलवान,
अपने बलबूते तुमने जीत ही लिया मैदान।
सोचा न था किसी ने सब थे तुमसे अनजान,
झटके भर में तुमने बना ली अपनी पहचान।
देश का सीना और चौड़ा किया बढ़ाई तुमने शान,
पदक भूख से मसमसाते देश को करा दिया जलपान।
छप्पन साल की तोड़ी चुप्पी हम कैसे न हों हैरान,
जधाव ने तब छेडी थी अब तुमने छेड़ दी तान।
अभिनन्दन है तुम्हारा हम हुए तेरे कद्रदान,
लोगों ने भी है अब लोहा तुम्हारी मान।
दिल कर रहा करने को आज ये एलान,
देश के नाम पर सबका करें अब आह्वान।
कि सुनो हे ! देश के भटके हुए नौजवान,
बिंद्रा, सुशील और विजेंदर सा दिखाओ उफान।
ग़लत काम छोड़ न करो ख़ुद को बदनाम,
कुकर्म छोड़ सुकर्म करो ऊँचा करो खानदान।
अंधे विचारधारा छोड़ दंगे न करो न करो मानवता का अपमान,
बाजू फड़कती है अगर तो अखाड़े में लगाओं अपनी जान।
मोटरसाईकल सवार हो छीनाझपटी करते क्यों नादान,
माँ बहनों के श्रृंगार झपट उधेड़ते क्यों उनके कान।
सजाते हो क्यों इस कदर अपनी अपराध की दूकान,
खेल कूद दंगल की तरफ़ करो अब अपनी रुझान।
अपनी चंचलता चपलता से देश की संभालो कमान,
एकजुट संकल्प से विश्व पटल पर तभी होगा देश का उत्थान।

-बौबी बावरा

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

विश्व विजयी अभिनव बिंद्रा

विश्व विजयी बना,
भारतीय अभिनव बिंद्रा।
चटकी हो जैसे बरसों की,
सुसुप्त कुम्भ्करनी निंद्रा।
जनता देश की देती,
बिंद्रा तुम्हें हार्दिक बधाई।
अपने बलबूते ही तुमने,
देश की लाज बचाई।
बरसों से देश ले रहा,
कई ओलिम्पिक में हिस्सा।
मगर खाली हाथ लौटना ही,
रहा हमेशा किस्सा।
सोचा न था किसी ने,
कि अभिनव कर दिखायेगा।
छुपा रुस्तम बन,
देश को शीर्ष पर बैठायेगा।
कठिन असंभव काम कर,
इतिहास तुमने रच दिया।
भ्रष्ट देसी तंत्र के बावजूद,
तुमने सपना सच किया।
निशाना लगाना हमें भी बताओ,
बन्दूक अपनी दो जरा उधार।
एकजुट हो संघर्ष करेंगे,
करने को हम भी सुधार।
कि शर्म करो हे निर्लज,
स्वार्थी नौकरशाह-राजनेता।
तुम्हारे ही चलते देश,
अब भी पिछवाडे में है लेटा।
कि बड़ा देश बड़ी आबादी,
फ़िर भी पदकों का है टोटा।
जेब भर अपनी तुम कर रहे,
अपना लालची पेट मोटा।
अन्य देश पदकों की,
लगा देते हैं जीत कर ढेर।
और तुम खोखले करते देश को,
कहलवाते अपने को हो शेर।

-बौबी बावरा

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

दिल उसी को चाहने लगा है

कौन हो तुम?

भटकती रूह-सी,

मेरी परछाई बनकर जी रही।

तन्हाई के समंदर में,

डगमगाई कश्ती-सी,

चकराते भंवर में तैर रही।

जोशीले लहरों-सी बढ़ती,

बुढे चट्टानों से टकराती,

और धीरे-धीरे शांत हो जाती।

ये कैसी चाहत है?

ये कैसा खिंचाव है?

कि जिसे नहीं चाहना था,

दिल उसी को चाहने लगा है।

मन कहता है,

नहीं-

पर एक,

टीसती सी लहर,

दिल की दीवारों को चीर जाती है।

एहसास दिलाती है,

कि बिना उसके जिंदगी,

बेकार है,

चाहत की सुलगती-बुझती,

आग का विस्तार है।

मजबूर जिन्दगी उसमें,

आज भी जलने को लाचार है।

-बौबी बावरा



शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

तुम नज़र आते हो हर लौ में

सांझ जब होती है
अँधेरा बढने के साथ साथ
विरह वेदना की कसक उठती है
तुम्हें याद मैं करती हूँ
चेहरे पर खामोशी लिए
एक दीया जलाती हूँ
फ़िर जलती लौ को निहारती हूँ
तुम्हें याद करते करते
सब कुछ भूल सी जाती हूँ
तन्हाई जाती है और पसर
हटती जलते लौ से है जब नज़र
चारों तरफ़ असंख्य लौ जाते हैं ठहर
वेदना जलती बुझती है सौ के सौ में
प्रिय तुम नजर आते हो हर लौ में

-बौबी बावरा

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

खंडित खंडहर बन जाऊँगी

अपने बारे में बताओ
अपने को न छुपाओ
तुम्हें देख पाऊँगी कैसे
रिश्ता तुमसे जोड़ पाऊँगी कैसे
पहले जान लूँगी समझ लूँगी
परख लूँगी पहचान लूँगी
तभी झील सी अपनी आँखों में
दिल की गहराई और सांसों में
तुम्हें उतरने दूँगी
तुम्हें बसने दूँगी
धोखे बहुत अब होते हैं
खोकर बाद में सब रोते हैं
मेरे साथ भी ऐसा हो जाए तो
वफ़ा के बदले वफ़ा न मिल पाए तो
खंडित खंडहर सी मैं कहलाउंगी
भरोसे की नींव हो तभी अपनाउंगी
नहीं तो कैसे अपने को बचाऊँगी
टुटा दिल लेकर कैसे जी पाऊँगी

-बौबी बावरा






बुधवार, 6 अगस्त 2008

राहें अब भी सूनी हैं

अभी अभी देखकर आया
राहें अब भी सूनी हैं
बस पहले की तरह
हर मोड़ पर एक
धुंधली परछाई है
हवा ने रुख बदला है
पर वो बेगानी सी याद
अब भी दिल में आती है
विरह वेदना के कम्पन में
यादों के हर कण कण में
हाँ ! अब भी उसे पाता हूँ
रीझा करता था कि
हमारी भी तो कोई है
सुर को साज देने वाली
नयन मदिरा पिलाने वाली
मेरे सपनो की शहजादी
मगर ये तो है बस
एक अधूरा सपना सा
कि वो आयी
जुड़े में फूल खोंसकर
बाँहों में प्यार भरकर
खड़ी रही खामोश
चाहा बाँहों में बाँध लूँ
जाने न इस बार दूँ
मगर सपना सपना होता है
सबकुछ कहाँ अपना होता है
चली गई जैसे थी आयी
मगर कहाँ ? पता नहीं
अरसे बीत गए
खड़ा हूँ बस उन राहों में
कि देखूं आती कहाँ से है
वह या उसकी यादें
कि शायद फ़िर आ जाए
मगर राहें तो सूनी हैं
अभी अभी देखकर आया
पहले कि तरह
राहें अब भी सूनी हैं

-बौबी बावरा



रविवार, 3 अगस्त 2008

बाल मनोरंजन गीत

सिर पर चमेली का तेल मला
सहज सलीके से मैं हूँ ढला
दुलार प्यार से हूँ मैं पला
आती मुझको हर हुनर कला
खाकर मिठाई शुद्ध घी में तला
गणित के प्रश्नों को है हला
तब छोटू संग घर से निकला
चोर सिपाही खेलने चला
छोटू को ये खूब खला
कि पहले बना वो चोर क्यों भला
वो सोचा मैंने उसको है छला
मन ही मन वो खूब जला
मुझे बात जब पता चला
सिपाही बनाया उसको पहला
फ़िर बताया इर्ष्या है बुरी बला
और प्यार से हर समस्या है टला
समझकर छोटू ने लगा लिया गला
ये दोस्ती प्यार से खूब फुला फला

-बौबी बावरा