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गुरुवार, 14 अगस्त 2008

दिल उसी को चाहने लगा है

कौन हो तुम?

भटकती रूह-सी,

मेरी परछाई बनकर जी रही।

तन्हाई के समंदर में,

डगमगाई कश्ती-सी,

चकराते भंवर में तैर रही।

जोशीले लहरों-सी बढ़ती,

बुढे चट्टानों से टकराती,

और धीरे-धीरे शांत हो जाती।

ये कैसी चाहत है?

ये कैसा खिंचाव है?

कि जिसे नहीं चाहना था,

दिल उसी को चाहने लगा है।

मन कहता है,

नहीं-

पर एक,

टीसती सी लहर,

दिल की दीवारों को चीर जाती है।

एहसास दिलाती है,

कि बिना उसके जिंदगी,

बेकार है,

चाहत की सुलगती-बुझती,

आग का विस्तार है।

मजबूर जिन्दगी उसमें,

आज भी जलने को लाचार है।

-बौबी बावरा



2 टिप्‍पणियां:

रवि रतलामी ने कहा…

बढ़िया कविता है.

Bobby Bawra ने कहा…

Thank you for appreciation.