कौन हो तुम?
भटकती रूह-सी,
मेरी परछाई बनकर जी रही।
तन्हाई के समंदर में,
डगमगाई कश्ती-सी,
चकराते भंवर में तैर रही।
जोशीले लहरों-सी बढ़ती,
बुढे चट्टानों से टकराती,
और धीरे-धीरे शांत हो जाती।
ये कैसी चाहत है?
ये कैसा खिंचाव है?
कि जिसे नहीं चाहना था,
दिल उसी को चाहने लगा है।
मन कहता है,
नहीं-
पर एक,
टीसती सी लहर,
दिल की दीवारों को चीर जाती है।
एहसास दिलाती है,
कि बिना उसके जिंदगी,
बेकार है,
चाहत की सुलगती-बुझती,
आग का विस्तार है।
मजबूर जिन्दगी उसमें,
आज भी जलने को लाचार है।
-बौबी बावरा
2 टिप्पणियां:
बढ़िया कविता है.
Thank you for appreciation.
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